Pandit Narendra Sharma पडिंत नरेन्द्र शर्मा by Lavanya Shah
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Lavanya grew up in Mumbai in an artistic environment. Her father, Pandit Narendra Sharma, was a renowned Hindi poet\; her mother, Susheela Sharma, painted with oil and water colour mediums. Lavanya started writing poems when she was 3 years old. फ़िर गा उठा प्रवसी Fir Ga Utha Prawasee (The traveller sings again) is her first book of poems. Her Hindi blog is Lavanyam -Antarman (Inner Voice of Lavanya ) लावण्यम्` अन्तर्मन्` She lives in the US. Her email id is lavnis@gmail.com.
Editor's note: This contribution is in Hindi.
काव्य सँग्रह "प्यासा ~ निर्झर"
की शीर्ष कविता मेँ कवि नरेँद्र कहते हैँ,
"मेरे सिवा और भी कुछ है,
जिस पर मैँ निर्भर हूँ
मेरी प्यास हो ना हो जग को,
मैँ, प्यासा निर्झर हूँ"
हमारे परिवार के "ज्योति -कलश" मेरे पापा
और फिल्म "भाभी की चूडीयाँ" फिल्म के गीत मेँ,
"ज्योति कलश छलके" शब्द भी उन्हीँ के लिखे हुए हैँ
जिसे स्वर साम्राज्ञी लता दीदी ने भूपाली राग मेँ गा कर
फिल्मोँ के सँगीत मेँ साहित्य का,
सुवर्ण सा चमकता पृष्ठ जोड दिया!
यही हैँ मेरे लिये पापा!
हमारे परिवार के सूर्य!
जिनसे हमेँ ज्ञान, भारतीय वाँग्मय, साहित्य,
कला, सँगीत, कविता तथा शिष्टाचार के साथ
इन्सानियत का बोध पाठ भी सहजता से मिला -
ये उन के व्यक्तित्त्व का सूर्य ही था जिसका प्रभामँडल
"ज्योति कलश" की भाँति, उर्जा स्त्रोत
बना हमेँ सीँचता रहा -
मेरे पापा उत्तर भारत, खुर्जा,
जिल्ला बुलँद शहर के जहाँगीरपुर गाँव के
पटवारी घराने मेँ जन्मे थे.
प्राँरभिक शिक्षा खुर्जा मेँ हुई -
अल्हाबाद विश्वविध्यालय से अँग्रेजी साहित्य मेँ M.A. करनेके बाद,
वे विविध प्रकार की साहित्यिक गतिविधियोँ से जुडे रहे
जैसा यहाँ सुप्रसिध्ध लेखक
मेरे चाचा जी अमृत लाल नागर जी लिखते हैँ,
"अपने छात्र जीवन मेँ ही कुछ पैसे कमाने के लिये
नरेन्द्र जी कुछ दिनोँ तक "भारत" के सँपादीय विभाग मेँ काम करते थे.
शायद "अभ्युदय" के सँपादीकय विभाग मेँ भी उन्होने काम किया था.
M.A पास कर चुकने के बाद
वह अकेले भारतीय काँग्रेस कमिटी के दफ्तर मेँ भी
हिन्दी अधिकारी के रुप मेँ काम करने लगे.
उस समय जनता राज मेँ राज्यपाल रह चुकनेवाले
श्री सादिक अली
(पढेँ यह आलेख सादिक अली जी द्वारा लिखा हुआ)
http://antarman-antarman.blogspot.com/2006/12/some-flash-back.html
और भारत के दूसरे या तीसरे सूचना मँत्री के रुप मेँ काम कर चुकनेवाले
स्व. बालकृष्ण केसकर भी उनके साथ काम करते थे.
एक बार मैँने उन दिनोँ का एक फोटोग्राफ भी बँधु के यहाँ देखा था.
उसी समय कुछ दिनोँ के लिये वह
कोँग्रेस के अध्यक्ष पँडित जवाहरलाल नेहरु के कार्यालय के
सचिव भी रहे थे.
इतने प्रतिभाशाली होने के बावजूद उन्होँने कभी,
किसी से किसी प्रकार की मदद नहीं माँगी.
फिल्मोँ मेँ उन्होँने सफल गीतकार के रुप मेँ
अच्छी ख्याति अर्जित की.
उससे भी अधिक ज्योतीषी के रुप मेँ भी
उन्होँने वहाँ खूब प्रतिष्ठा पायी."
जैसा यहाँ नागर जी चाचा जी ने लिखा है,
पापा कुछ वर्ष आनँद भवन मेँ अखिल भारतीय कोँग्रेस कमिटि के हिँदी विभाग से जुडे और
वहीँ से २ साल के लिये, नजरबँगद किये गए -
देवली जेल मेँ भूख हडताल से (१४ दिनो तक) ....
जब बीमार हाल मेँ रिहा किए गए तब गाँव,
मेरी दादीजी गँगादेवी से मिलने गये - ---
जहाँ बँदनवारोँ को सजा कर देशभक्त कवि नरेन्द्र का हर्षोल्ल्लास सहित स्वागत किया गया -
वहीँ से श्री भगवती चरण वर्मा जी ("चित्रलेखा" के प्रेसिध्ध लेखक) के आग्रह से बम्बई आ बसे -
वहीँ गुजराती कन्या सुशीला से पँतजी के आग्रह से व आशीर्वाद से पाणि ग्रहण सँस्कार रम्पन्न हुए --"
बारात मेँ हिँदी साहित्य जगत और फिल्म जगत की महत्त्व पूर्ण हस्तीयाँ हाजिर थीँ --
श्री अमृतलाल नागर - संस्मरण : ~~~~
खुर्जा कुरु जाँगल का ही बिगडा हुआ नाम है.
उनके पिता पँडित पूरनलाल जी गौड जहाँगीरपुर ग्राम के पटवारी थे
बडे कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार, सात्विक विचारोँ के ब्राह्मण!
अल्पायु मेँ ही उनका देहावसन हो गया था.
उनके ताऊजी ने ही उनकी देखरेख की
और पालन पोषण उनकी गँगा स्वरुपा माता स्व. गँगादेवी ने ही किया. आर्यसमाज और राष्ट्रीय आँदोलन के दिन थे,
इसलिये नरेन्द्र जी पर बचपन से ही सामाजिक सुधारोँ का प्रभाव पडा,
साथ ही राष्ट्रीय चेतना का भी विकास हुआ.
नरेन्द्रजी अक्सर मौज मेँ आकर अपने बचपन मेँ याद किया हुआ एक आर्यसमाजी गीत भी गाया करते थे,
मुझे जिसकी पँक्ति अब तक याद है -
"वादवलिया ऋषियातेरे आवन की लोड"
लेकिन माताजी बडी सँस्कारवाली ब्राह्मणी थीँ
उनका प्रभाव बँधु पर अधिक पडा.
जहाँ तक याद पडता है उनके ताऊजी ने उन्हेँ
गाँव मेँ अँग्रेजी पढाना शुरु किया था
बाद मेँ वे खुर्जा के एक स्कूल मेँ भर्ती कराये गये.
उनके हेडमास्टर स्वर्गीय जगदीशचँद्र माथुर के पिता
श्री लक्ष्मीनारायण जी माथुर थे.
लक्ष्मीनारायण जी को तेज छात्र बहुत प्रिय थे.
स्कूल मे होनेवाली डिबेटोँ मेँ वे अक्सर भाग लिया करते थे.
बोलने मेँ तेज !
इन वाद विवाद प्रतियोगिताअओँ मेँ वे
अक्सर फर्स्ट या सेकँड आया करते थे.
जगदीशचँद्र जी माथुर नरेन्द्र जी से आयु मे चार या पाँच साल छोटे थे.
बाद मेँ तत्कालीक सूचना मँत्री बालकृष्ण केसकर ने
उन्हेँ आकाशवाणी के डायरेक्टर जनरल के पद पर नियुक्त किया.
जगदीशचँद्र जी सुलेखक एवँ नाटककार भी थे
तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे पढते समय भी
उनका श्रेध्धेय सुमित्रा नँदन पँत और नरेन्द्र जी से बहुत सँपर्क रहा.
वह बँधुको सदा "नरेन्द्र भाई" ही कहा करते थे --
अवकाश प्राप्त करने के बाद, एक बार, मेरी उनसे
दिल्ली मेँ लँबी और आत्मीय बातेँ हुईँ थी
उन्होँने ही मुझे बताया था कि
उनके स्वर्गीय पिताजी ने ही उन्हेँ (बँधु को) सदा
"नरेन्द्र भाई" कहकर ही सँबोधित करने का आदेश दिया था.
नरेन्द्र जी इलाहाबाद मेँ रहते हुए ही
कविवर बच्चन, शमशेर बहादुर सिँह, केदार नाथ अग्रवाल
और श्री वीरेश्वर से जो बाद मेँ "माया" के सँपादक हुए.
उनका घनिष्ट मैत्री सँबध स्थापित हो गया था.
ये सब लोग श्रेध्धय पँतजी के परम भक्त थे.
और पँतजी का भी बँधु के प्रति एक अनोखा वात्सल्य भाव था.
वह मैँने पँतजी के बम्बई आने और
बँधु के साथ रहने पर अपनी आँखोँ से देखा था.
नरेन्द्र जी के खिलँदडेपन और हँसी - मजाक भरे स्वभाव के कारण
दोनोँ मेँ खूब छेड छाड भी होती थी.
किन्तु, यह सब होने के बावजूद दोनोँ ने एक दूसरे को अपने ढँग से खूब प्रभावित किया था.
नरेन्द्र जी की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर, बँबईवालोँ ने
एक स्मरणीय अभिनँदन समारोह का आयोजन किया था.
तब तक सुपर स्टार चि. अमिताभ के पिता की हैसियत से
आदरणीय बच्चन भाई भी बम्बई के निवासी हो चुके थे.
उन्होँने एक बडा ही मार्मिक और स्नेह पूर्ण भाषण दिया था, जो
नरेन्द्र के अभिनँदन ग्रँथ "ज्योति ~ कलश" मेँ छपा भी है
- उक्त अभिनँदन समारोह मेँ किसी विद्वान ने
नरेन्द्र जी को प्रेमानुभूतियोँ का कवि कहा था!
इस बात को स्वीकार करते हुए भी बच्चन भाई ने
बडे खुले दिल से यह कहा था कि
अपनी प्रेमाभिव्यक्तियोँ मेँ भी नरेन्द्र जी ने
जिन गहराइयोँ को छुआ है और सहज ढँग से व्यक्त किया
वैसा छायावाद का अन्य कोई कवि नहीँ कर पाया!
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भारत कोकिला श्रीमती सुब्बुलक्ष्मी जी की एक फिल्म्
"मीरा" हिन्दी मेँ डब कर रहा था
और इस निमित्त से वह और उनके पति श्रीमान्` सदाशिवम्`जी
बँबई ही रह हरे थे।
बँधुवर नरेन्द्रजी ने उक्त फिल्म के कुछ तमिल गीतोँ को
हिन्दी मे इस तरह रुपान्तरित कर दिया कि
वे मेरी डबिँग मेँ जुड सकेँ।
सदाशिवं`जी और उनकी स्वनामधन्य पत्नी
तथा तथा बेटी राधा हम लोगोँ के साथ
व्यावसायिक नहीँ किन्तु पारिवारिक प्रेम व्यवहार करने लगे थे.
सदाशिवं`जी ने बँबई मेँ ही एक नयी शेवरलेट गाडी खरीदी थी.
वह जोश मेँ आकर बोले,
"इस गाडी मेँ पहले हमारा यह वर ही यात्रा करेगा!"
गाडी फूलोँ से खूब सजाई गई
उसमेँ वर के साथ माननीय सुब्बुलक्ष्मी जी व प्रतिभा बैठीँ ।
समधी का कार्य श्रधेय सुमित्रनँदन पँत ने किया।
बडी शानदार बारात थी!
बँबई के सभी नामचीन्ह फिल्मस्टार और
नृत्य - सम्राट उदयशँकर जी उस वर यात्रा मेँ सम्मिलित हुए थे.
बडी धूमधाम से विवाह हुआ.
मेरी माता बंधु से बहुत प्रसन्न् थी
और पँत जी को, जो उन दिनोँ बँबई मेँ ही नरेन्द्र जी के साथ रहा करते थे, वह देवता के समान पूज्य मानती थी ।
मुझसे बोली,
"नरेन्द्र और बहु का स्वागत हमारे घर पर होगा !"
दक्षिण भारत कोकिला : सुब्बुलक्षमीजी, सुरैयाजी, दीलिप कुमार, अशोक कुमार, अमृतलाल नागर व श्रीमती प्रतिभा नागरजी, भगवती बाब्य्, सपत्नीक, अनिल बिश्वासजी, गुरु दत्तजी, चेतनानँदजी, देवानँदजी इत्यादी सभी इस विलक्षण विवाह मेँ सम्मिलित हुए थे और नई दुल्हन को कुमकुम के थाल पर पग धरवा कर गृह प्रवेश करवाया गया उस समय सुरैया जी तथा सुब्बुलक्ष्मी जी मे मँगल गीत गाये थे और जैसी बारात थी उसी प्रकार बम्बई के उपनगर खार मेँ, १९ वे रास्ते पर स्थित उनका आवास भी बस गया
न्यू योर्क भारतीय भवन के सँचालक श्रीमान डो. जयरामनजी के शब्दोँ मेँ कहूँ
तो "हिँदी साहित्य का तीर्थ - स्थान"
बम्बई जेसे महानगर मेँ एक शीतल सुखद धाम मेँ परिवर्तित हो गया --
मेरी अम्मा स्व. श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्मा का एक सँस्मरण है ~~
जब मुझसे बडी बहन वासवी का जन्म हो गया था
तब पापा जी और अम्मा सुशीला माटुँगा तैकलवाडी के घर पर रहते थे
इसी २ कमरे वाले फ्लैट मेँ कवि श्रेष्ठ श्री सुमित्रा नँदन पँत जी भी
पापा जी के साथ कुछ वर्ष रह चुके थे -
एक दिन पापाजी और अम्मा बाज़ार से सौदा लिये
किराये की घोडागाडी से घर लौट रहे थे -
अम्मा ने बडे चाव से एक बहुत महँगा छाता भी खरीदा था -
जो नन्ही वासवी (मेरी बडी बहन) और साग सब्जी उतारने मेँ
अम्मा वहीँ भूल गईँ -
जैसे ही घोडागाडी ओझल हुई कि वह छाता याद आ गया!
पापा जी बोले,
"सुशीला, तुम वासवी को लेकर घर जाओ,
वह दूर नहीँ गया होगा
मैँ अभी तुम्हारा छाता लेकर आता हूँ !"
अम्मा ने बात मान ली और कुछ समय बाद
पापा जी छाता लिये आ पहुँचे!
कई बरसोँ बाद अम्मा को यह रहस्य जानने को मिला कि
पापा जी दादर के उसी छातेवाले की दुकान से
हुबहु वैसा ही एक और नया छाता खरीद कर ले आये थे
ताकि अम्मा को दुख ना हो!
इतने सँवेदनाशील और दूसरोँ की भावनाओँ का आदर करनेवाले,
उन्हेँ समझनेवाले भावुक कवि ह्र्दय के इन्सान थे मेरे पापा जी!
आज याद करूँ तब ये क्षण भी स्मृति मेँ कौँध - कौँध जाते हैँ.
..................................
(अ) हम बच्चे दोपहरी मेँ जब सारे बडे सो रहे थे,
पडोस के माणिक दादा के घर से कच्चे पक्के आम तोड कर
किलकारीयाँ भर रहे थे कि,
अचानक पापाजी वहाँ आ पहुँचे ----
गरज कर कहा,
"अरे! यह आम पूछे बिना क्योँ तोडे ?
जाओ, जाकर माफी माँगो और फल लौटा दो"
एक तो चोरी करते पकडे गए और उपर से माफी माँगनी पडी!!!
- पर अपने और पराये का भेद आज तक भूल नही पाए
-- यही उनकी शिक्षा थी --
(ब) मेरी उम्र होगी कोई ८ या ९ साल की
- पापाजी ने, कवि शिरोमणि कवि कालिदास की कृति
"मेघदूत" से पढनेको कहा --
सँस्कृत कठिन थी परँतु, जहाँ कहीँ , मैँ लडखडाती,
वे मेरा उच्चारण शुध्ध कर देते --
आज, पूजा करते समय, हर श्लोक के साथ ये पल याद आते हैँ --
(क) मेरी पुत्रा सिँदूर के जन्म के बाद जब भी रात को उठती,
पापा, मेरे पास सहारा देते, मिल जाते
-- मुझसे कहते, "बेटा, मैँ हूँ, यहाँ" ,..................
आज मेरी बिटिया की प्रसूती के बाद,
यही वात्सल्य उँडेलते समय,
पापाजी की निस्छल, प्रेम मय वाणी और
स्पर्श का अनुभव हो जाता है .
जीवन अत्तेत के गर्भ से उदित होकर,
भविष्य को सँजोता आगे बढ रहा है -
कुछ और यादेँ हैँ जिन्हेँ आप के साथ साझा कर रही हूँ -
* काव्यमय बानी *
मैँ जब छोटी बच्ची थी, तब अम्मा व पापा जी का कहना है कि,
अक्सर काव्यमय वाणी मेँ ही अपने विचार प्रकट किया करती थी!
अम्मा कभी कभी कहती कि,
"सुना था कि मयुर पक्षी के अँडे, रँगोँ के मोहताज नहीँ होते!
उसी तरह मेरे बच्चे पिता की काव्य सम्पत्ति
विरासत मेँ साथ लेकर आये हैँ!"
यह एक माँ का गर्व था जो छिपा न रह पाया होगा. या,
उनकी ममता का अधिकार उन्हेँ मुखर कर गया था शायद !
कौन जाने ?
परँतु आज जो मेरी अम्मा ने मुझे बतलाया था
उसे आप के साथ बाँट रही हूँ -
तो सुनिये,
एक बार मैँ, मेरी बचपन की सहेली लता
बडी दीदी वासवी, - हम तीनोँ खेल रहे थे.
वसँत ऋतु का आगमन हो चुका था
और होली के उत्सव की तैयारी
बँबई शहर के गली मोहोल्लोँ मेँ,
जोर शोरोँ से चल रही थीँ -
खेल खेल मेँ लता ने,
मुझ पर एक गिलास पानी फेँक कर मुझे भीगो दीया!
मैँ भागे भागे अम्मा पापाजी के पास दौड कर पहुँची
और अपनी गीली फ्रोक को शरीर से दूर खेँचते हुए बोली,
"पापाजी, अम्मा! देखिये ना!
मुझे लताने ऐसे गिला कर दीया है
जैसे मछली पानी मेँ होती है !"
इतना सुनते ही, अम्मा ने मुझे वैसे,
गिले कपडोँ समेत खीँचकर
प्यार से गले लगा लिया!
बच्चोँ की तोतली भाषा, सदैव बडोँ का मन मोह लेती है.
माता, पिता को अपने शिशुओँ के प्रति
ऐसी उत्कट ममता रहती है कि, उन्हेँ हर छोटी सी बात,
विद्वत्तापूर्ण और अचरजभरी लगती है
मानोँ सिर्फ उन्ही के सँतान
इस तरह बोलते हैँ - चलते हैँ, दौडते हैँ -
पापा भी प्रेमवश, मुस्कुरा कर पूछने लगे,
"अच्छा तो बेटा,
मछली ऐसे ही गिली रहती है पानी मेँ?
तुम्हेँ ये पता है? "
"हाँ पापा, एक्वेरीयम (मछलीघर ) मेँ देखा था ना हमने!"
मेरा जवाब था --
हम बच्चे, सब से बडी वासवी, मैँ मँझली लावण्या, छोटी बाँधवी व भाई परितोष
अम्मा पापा की सुखी, गृहस्थी के छोटे, छोटे स्तँभ थे!
उनकी प्रेम से सीँची फुलवारी के हम महकते हुए फूल थे!
आज जब ये याद कर रही हूँ तब प्रिय वासवी और वे दोनोँ ,
हमारे साथ स -शरीर नहीँ हैँ !
उनकी अनमोल स्मृतियोँ की महक
फिर भी जीवन बगिया को महकाये हुए है.
हमारे अपने शिशु बडे हो गये हैँ -
- पुत्री सौ. सिँदुर का पुत्र नोआ ३ साल का हो गया है!
फुलवारी मेँ, आज भी, फूल महक रहे हैँ !
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साहित्य मनीषीकी अनोखी सृजन यात्रा निर्बाध गति से ६ दशकोँ को पार करती हुई,
महाभारत प्रसारण १९८९ , ११ फरवरी की काल रात्रि के ९ बजे तक चलती रही ---
डा. राही मासूम रज़ा सा'ब ने यह भावभीनी कविता लिखी है -
जिसे सुनिये चूँकि आज , रज़ा सा'ब भी हमारे बीच
अब स-शरीर नहीँ रहे ! :-(
"वह पान भरी मुस्कान"
वह पान भरी मुस्कान न जाने कहाँ गई ?
जो दफ्तर मेँ, इक लाल गदेली कुर्सी पर,
धोती बाँधे, इक सभ्य सिल्क के कुर्ते पर,
मर्यादा की बँडी पहने, आराम से बैठा करती थी,
वह पान भरी मुस्कान तो उठकर चली गई!
पर दफ्तर मेँ, वो लाल गदेली कुर्सी अब तक रक्खी है,
जिस पर हर दिन,अब कोई न कोई, आकर बैठ जाता है
खुद मैँ भी अक्सर बैठा हूँ
कुछ मुझ से बडे भी बैठे हैँ,
मुझसे छोटे भी बैठे हैँ,
पर मुझको ऐसा लगता है
वह कुरसी लगभग एक बरस से खाली है !
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यह मेरा परम सौभाग्य है और मैँ, लावण्या, सौभाग्यशाली हूँ
कि मैँ पुण्यशाली , सँत प्रकृति कवि ह्रदय के लहू से सिँचित,
उनके जीवन उपवन का एक फूल हूँ --
उन्हीँके आचरणसे मिली शिक्षा व सौरभ सँस्कार,
मनोबलको, हर अनुकूल या विपरित जीवन पडाव पर
मजबूत किये हुए, जी रही हूँ !
उनसे ही ईश्वर तत्व क्या है उसकी झाँकी हुई है -
- और, मेरी कविता ने प्रणाम किया है --
"जिस क्षणसे देखा उजियारा,
टूट गे रे तिमिर जाल !
तार तार अभिलाषा तूटी,
विस्मृत घन तिमिर अँधकार !
निर्गुण बने सगुण वे उस क्षण ,
शब्दोँ के बने सुगँधित हार !
सुमन ~ हार, अर्पित चरणोँ पर,
समर्पित, जीवन का तार ~ तार
!!
( गीत रचना ~ लावण्या )
प्रथम कविता ~ सँग्रह, "फिर गा उठा प्रवासी" बडे ताऊजीकी बेटी श्रीमती गायत्री,
शिवशँकर शर्मा "राकेश" जी के सौजन्यसे, तैयार है -
--"प्रवासी के गीत" पापाजी की सुप्रसिध्ध पुस्तक और
खास उनके गीत "आज के बिछुडे न जाने कब मिलेँगे? "
जैसी अमर कृति से हिँदी साहित्य जगत से सँबँध रखनेवाले
हर मनीषी को यह बत्ताते अपार हर्ष है कि,
'यह मेरा विनम्र प्रयास, मेरे सुप्रतिष्ठित कविर्मनीष पिताके प्रति
मेरी निष्ठा के श्रध्धा सुमन स्वर स्वरुप हैँ -
शायद मेरे लहू मेँ दौडते उन्ही के आशिष ,
फिर हिलोर लेकर, माँ सरस्वती की पावन गँगाको,
पुन:प्लावित कर रहे होँ क्या पता ?
© Lavanya Shah लावण्या शाह 2009
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